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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

यह क्या पढ़ रहे हैं आप?


एक बार मैं गाँधी जी के निकट बैठा था और बातचीत प्रार्थना पर चल रही थी। वे बोले, “प्रार्थना का एक चमत्कार यह है कि हमारे सामने जब विकट समस्याएँ होती हैं और हमारी शक्तियाँ उन्हें सुलझाने में अपने को असमर्थ पाती हैं, हम सरल भाव से प्रार्थना करें, तो परिस्थितियों में बिना किसी प्रयत्न के ऐसा परिवर्तन हो जाता है कि वे समस्याएँ आप ही आप सुलझ जाती हैं।"

मैंने नम्रता से पूछा, “बापू, बिना किसी प्रयत्न के इस परिवर्तन का रहस्य क्या है?"

बापू ने कहा, “यह बात एक और एक दो की भाषा में नहीं कही जा सकती, पर सत्य है। अपनी भाषा में मैं इसे ईश्वर की कृपा मानता हूँ, पर मनोवैज्ञानिक रूप में भी इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है।"

नरेन्द्रनाथ रामकृष्ण परमहंस के निकट गये, तो नास्तिक थे, पर लौटे, तो आस्तिक होकर।

मैं अनेक बार अशान्ति के क्षणों में लहलहाते खेतों पर गया हूँ और वहाँ से उत्फुल्ल होकर लौटा हूँ।

यह सब क्या है?

यह सब शुभ सम्पर्क की शक्ति है।

अत्यन्त नम्रता के साथ मैं कहना चाहता हूँ कि इन लेखों में वही शुभ सम्पर्क है, जो अशान्ति में शान्ति, नीरसता में सरसता और निराशा में आशा के भाव देकर मन को बिना किसी प्रयत्न के यों बदल देता है कि जीवन अपनेआप पहले से अच्छा और आनन्दपूर्ण हो जाता है।

एक ही बात हम दो आदमी कहते हैं, पर एक की बात का हम पर कोई असर नहीं होता और दूसरे की बात का हमें तुरत विश्वास को जाता है। यह क्यों?

यह इसलिए कि एक कहता है बुद्धि से और दूसरा हृदय से। बुद्धि को बात बुद्धि से टकराती है और हृदय की हृदय से, यह प्राकृतिक नियम है। बुद्धि है अविश्वासी, अनिश्चयात्मक और तार्किक, इसलिए बुद्धि की बात बुद्धि में नहीं उतरती, देर में उतरती है और उतरकर भी यों नहीं पचती कि रस बनकर जीवन को सौन्दर्य दे, पर हृदय है विश्वासी और सरल, इसलिए हृदय की बात हृदय में झट उतर जाती है और यों पच जाती है कि रस बनकर जीवन को सौन्दर्य दे।

इन लेखों में न बुद्धि के गोरखधन्धे हैं, न सूखे ज्ञान के अम्बार; सरल हृदय की जिज्ञासाएँ हैं, चिन्तन हैं, अध्ययन हैं, प्रयत्न हैं, समाधान हैं, सफलताएँ हैं, अनुभव हैं, निष्कर्ष हैं।

इसीलिए वे पाठक को बहस में निरुत्तर नहीं करते, मन में शान्त करते हैं: उसके ज्ञान को झकझोरते नहीं, जीवन को बदलते हैं और यह सब भी दण्ड या कड़ाई से नहीं, मिठास से मित्र की तरह-सच तो यों कि पता नहीं चलता और जीवन में परिवर्तन हो जाता है, वह ऊँचा उठ जाता है, जीवन की पायलिया के घुघरू बज उठते हैं, उसमें सात्त्विक आनन्द भर जाता है और यह आनन्द उसे रचनात्मक कर्म में लगा देता है।

बस यहीं ये लेख इस तरह के दूसरे लेखों से भिन्न हैं।

इसी श्रृंखला के कुछ लेख 'ज़िन्दगी मुसकरायी', 'जिन्दगी लहलहायी' और ‘महके आँगन, चहके द्वार' में छपे हैं और कुछ ये हैं। इनमें मेरी लगभग चार दशाब्दियों की जीवन-साधना है और यह मेरा अभिमान नहीं सन्तोष है कि देश की उग-उभरती पीढ़ियों को मैं यह उपहार दे सका।

- कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'


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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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